धर्म डेस्क:- कर्ण की वास्तविक माँ कुन्ती थीं और कर्ण और उनके छ: भाइयों के धर्मपिता महाराज पांडु थे। कर्ण के वास्तविक पिता भगवान सूर्य थे। कर्ण का जन्म पाण्डु और कुन्ती के विवाह के पहले हुआ था। कर्ण दुर्योधन का सबसे अच्छा मित्र था और महाभारत के युद्ध में वह अपने भाइयों के विरुद्ध लड़ा।
कर्ण महाभारत के वीर योद्धाओं में से एक हैं। जिनकी छवि वर्तमान में एक शूरवीर और दानी के रूप में प्रतिस्थापित है। विभिन्न मान्यताओं के अनुसार उनका जन्म “कुंती” के घर एक वरदान के रूप में हुआ था। एक दिन दुर्वासा ऋषि चहल-पहल करते हुए, कुंती के महल में आए। उस समय कुंती अविवाहित थी, तब कुंती ने पूरे एक वर्ष तक दुर्वासा ऋषि की सेवा की थी। सेवाभाव के दौरान दुर्वासा ऋषि ने कुंती के भविष्य को अंतर्मन से देखा और कुंती से कहने लगे तुम्हे राजा पाण्डु से कोई संतान प्राप्त नहीं होगी, इसके लिए तुम्हे मैं एक वरदान देता हूँ कि तुम किसी भी देवता का स्मरण कर उससे संतान प्राप्त कर सकती हो। इतने कहने के बाद, दुर्वासा ऋषि वहां से चले गए, तभी उत्सुकतापूर्वक कुंती ने सूर्य देव का ध्यान लगाना शुरू किया। वहाँ स्वमं सूर्य नारायण प्रकट होगये। यह देख कर कुन्ती डर गई उन्होंने सूर्य देव से कहा हे सूर्य नारायण मैं अभी कुमारी कन्या हु। कृपया आप वापस चले जाएं मैंने तो बस ये मंत्र का परीक्षण करने के लिए ही इसका जाप किया था। भगवान सूर्य बोले कुंती मंत्र की शक्ति कभी व्यर्थ नहीं जाती मेरे विलीन होते ही तुम्हे एक पुत्र की प्राप्ति होगी जो अजय होगा। फिर यही कुंती पुत्र भविष्य में कर्ण के नाम से जाना गया।

जिस समय कर्ण का जन्म हुआ, उस समय राजकुमारी कुंती अविवाहित थी और बिना विवाह के पुत्र होने के कारण वे राज्य में अपनी, अपने पिता की, अपने सम्पूर्ण परिवार और राज्य की प्रतिष्ठा और सम्मान के प्रति चिंतित हो गयी और भगवान सूर्य से इस प्रकार उत्पन्न हुए पुत्र को वापस लेने की प्रार्थना करने लगी। क्योंकि वे महर्षि दुर्वासा द्वारा दिए गये वरदान से बंधे हुए थे और वरदान को पूरा करने हेतु विवश भी थे। इस स्थिति में राजकुमारी कुंती ने लोक – लाज के कारण पुत्र का त्याग करने का निर्णय लिया। उसने उस बालक को एक सन्दुक में रख गंगा जी में बहा दिया। परन्तु वे अपने पुत्र प्रेम के कारण उसकी सुरक्षा हेतु चिंतित थी। इस कारण उन्होंने भगवान सूर्य से अपने पुत्र की रक्षा करने की प्रार्थना की, तब भगवान सूर्य ने अपने पुत्र की सुरक्षा के लिए उसके शरीर पर अभेद्य कवच और कानों में कुंडल प्रदान किये, जो इस बालक के शरीर का ही हिस्सा थे। इन्ही कुण्डलो के कारण इस बालक का नाम कर्ण रखा गया।

गंगाजी में बहते कर्ण को महाराज धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ और उसकी पत्नी राधा ने गोद ले लिया। तथा उसका लालन पोषण किया। इसी कारण कर्ण को राधेय कहा जाता है। महाबलि कर्ण ने दुर्योधन से मित्रता का निर्वहन अपने प्राणों की अंतिम श्वास तक किया। महाभारत में अपनी वीरता के कारण जिस सम्मान से कर्ण का स्मरण होता है, उससे अधिक आदर उन्हें उनकी दानशीलता के कारण दिया जाता है। कर्ण का शुभ संकल्प था कि वह मध्याह्न में जब सूर्यदेव की आराधना करता है, उस समय उससे जो भी माँगा जाएगा, वह वचनबद्ध होकर उसको पूर्ण करेगा। कर्ण के जन्म से प्राप्त कवच कुंडल के कारण उसकी युद्ध में शारीरिक क्षति होना असम्भव था। कर्ण अंग देश के राजा थे, इस कारण उन्हें अंगराज के नाम से भी जाना जाता हैं। । कर्ण बहुत ही महान योध्दा थे, जिसकी वीरता का गुणगान स्वयं भगवान श्री कृष्ण और पितामह भीष्म ने कई बार किया। कर्ण ही इकलौते ऐसे योध्दा थे, जिनमे परम वीर पांडू पुत्र अर्जुन को हराने का पराक्रम था। अगर ये कहा जाये कि वे अर्जुन से भी बढकर योध्दा थे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि इतनी शक्ति होते हुए भी अर्जुन को कर्ण का वध करते समय अनीति का प्रयोग करना पड़ा। अर्जुन ने कर्ण का वध उस समय किया, जब कर्ण के रथ का पहिया भूमि में धंस गया था और वे उसे निकाल रहे थे और उस समय निहत्थे थे।

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