धर्म डेस्क:- माँ सती अग्नि की राख में भष्म होकर दूसरे जन्म में हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया और उनका नाम शैलपुत्री रखा गया। जब वह बड़ी हुई तब नारदजी ने उन्हें दर्शन दिए और बताया की अगर वह तपस्या के मार्ग पर चलेगी, तो उन्हें उनके पूर्व जन्म के पति शिवजी ही वर के रूप में प्राप्त होंगे। नवरात्री माँ दुर्गा के नौ स्वरुप नौ दिनों की पूजा करके मनाया जाता है। माँ दुर्गा के नौ रूप अति प्रभावशाली और सर्व मनोकामनाओ को पूर्ण करनेवाली है। कहते है, नवरात्री में माँ के इन नौ रूपों का वर्णन और कथा श्रद्धा भाव से सुनाता है। तो माँ उस पर प्रसन्न होती है। और उसपर विशेष कृपा द्रष्टि रखती है।

माँ शैलपुत्री - पुराणों के अनुसार माता शैलपुत्री का जन्म पर्वत राज हिमालय की पुत्री के रूप में हुआ था। इसीलिए उनका नाम शैलपुत्री है। माँ शैलपुत्री के एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में कमल मौजूद रहता है। माँ शैलपुत्री वृषभ पर बिराजमान है। माँ शैलपुत्री को सम्पूर्ण हिमालय पर्वत समर्पित है। माँ शैलपुत्री का नवरात्री के पहले दिन विधिपूर्वक पूजन करने से शुभ फल प्राप्त किया जा सकता है। माता को सफ़ेद वस्तुए पसंद है। इसलिए पूजा में सफ़ेद फल, फूल और मिष्ठान चढ़ाना बहोत फलदायी है। कुंवारी कन्याओ का इस व्रत को करने से अच्छे वर की प्राप्ति होती है। माँ शैलपुत्री का पूजा व्रत करने से जीवन में स्थिरता आती है।
एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बड़ा यज्ञ करवाया। उसमे उन्होंने सारे देवताओ को यज्ञ में अपना-अपना भाग लेने के लिए निमंत्रित किया। परंतु शिवजी को उन्होंने निमंत्रित नहीं किया। जब नारद जी ने माता सती को ये यज्ञ की बात बताई, तब माँ सती का मन वहा जाने के लिए बेचैन हो गया। उन्होंने शिवजी को यह बात बताई तब शिवजी ने कहा प्रजापति दक्ष किसी बात से हमसे नाराज़ हो गए हे। इसीलिए उन्होंने हमें जान बुजकर नहीं बुलाया तो ऐसे में तुम्हारा वहा जाना ठीक नहीं है। यह सुनकर माँ सती का मन शांत नहीं हुआ। उनका प्रबल आग्रह देखकर शिवजी ने उन्हें वहा जाने की अनुमति दे दी। जब माँ सती वहा पहुंची तो उन्होंने देखा की कोई भी वहा पर उनसे ठीक से या प्रेम से व्यव्हार नहीं कर रहा था। केवल उनकी माता ही उनसे प्रेमपूर्वक बात कर रही थी। तब क्रोध में आकर माता सती ने उस यज्ञ की अग्नि से अपना पूरा शरीर भष्म कर दिया और फिर अगले जन्म में पर्वत राज हिमालय के पुत्री के रूप में जन्म लिया और शैलपुत्री के नाम से जानी गई।
माँ ब्रह्मचारिणी- ब्रह्म का अर्थ तपस्या होता हे, और चारिणी का अर्थ आचरण होता है। तप का आचरण करने वाली। माँ ब्रह्मचारिणी के दाये हाथ में जप के लिए माला हे, और बाए हाथ में कमण्डल है। इन्हे साक्षात ब्रह्म का रूप माना जाता है। माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा करने से कृपा और भक्ति की प्राप्ति होती है। माँ ब्रह्मचारिणी के लिए माँ पार्वती के वह समय का उल्लेख हे। जब शिवजी को पाने के लिए माता ने कठोर तपस्या की थी। उन्होंने तपस्या के प्रथम चरण में केवल फलो का आचरण किया और फिर निराहार रहेके कही वर्षो तक तपस्या करके भगवान शिव को प्रसन्न किया। देवी ब्रह्मचारिणी की पूजा से तप, त्याग, संयम की प्राप्ति होती है। माँ का यह स्वरुप अत्यंत ज्योतिर्मय और भव्य है। माता मंगल ग्रह की शाशक हे, और भाग्य की दाता है।
माँ सती अग्नि की राख में भष्म होकर दूसरे जन्म में हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया और उनका नाम शैलपुत्री रखा गया। जब वह बड़ी हुई तब नारदजी ने उन्हें दर्शन दिए और बताया की अगर वह तपस्या के मार्ग पर चलेगी, तो उन्हें उनके पूर्व जन्म के पति शिवजी ही वर के रूप में प्राप्त होंगे। इसीलिए उन्होंने कठोर तपस्या की तब उन्हें ब्रह्मचारिणी नाम दिया गया। जमीन पर सोई, कही वर्षो तक कठिन उपवास रखे और खुले आसमान के नीचे शर्दी गरमी और घोर कष्ट सहे।बहूत समय तक टूटे हुए बिल पत्र खाए और भगवान शंकर की आराधना की। उसके बाद कई हजार वर्षो तक निर्जल और निराहार रहकर तपस्या की। यह देखकर सारे देवता गण प्रसन्न हो गए और उन्होंने पार्वती जी को बोला की इतनी कठोर तपस्या केवल वही कर सकती हे। इसीलिए उनको भगवान् शिवजी ही पति के रूप में प्राप्त होंगे, तो अब वह घर जाये और तपस्या छोड़ दे। माता की मनोकामना पूर्ण हुई और भगवान शिव ने उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकार किया।

चंद्रघंटा:– का अर्थ है चाँद की तरह चमकने वाली। नवरात्रि के तीसरे दिन मां चंद्रघंटा का पूजन किया जाता है जिनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र होता है। चंद्रघंटा मां के दस हाथ हैं जिनमें कमल का फूल, कमंडल, त्रिशूल, गदा, तलवार, धनुष और बाण है। एक हाथ आशीर्वाद तो दूसरा अभय मुद्रा में रहता है, शेष बचा एक हाथ वे अपने हृदय पर रखती हैं। माता का यह प्रतीक रत्न जड़ित आभूषणों से सुशोभित है और गले में सफेद फूलों की माला शोभित है। इन देवी का वाहन बाघ है। माता का घण्टा असुरों को भय प्रदान करने वाला होता है और वहीं इससे भक्तों को सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिलती है। माता का यह स्वरुप हमारे मन को नियंत्रित रखता है।
प्राचीन समय में देव और दानवो का युद्ध लंबे समय तक चला। देवो के राजा इन्द्र और राक्षशो के राजा महिषासुर थे। इस युद्ध में देवता ओ की सेना राक्षशो से पराजित हुई और एक समय ऐसा आया की देवताओ से विजय प्राप्त कर महिसासुर स्वयं इन्द्र बन गया। उसके बाद देवता भगवान विष्णु और शिवजी की शरण में गए और उन्होंने बताया की महिषासुर ने सूर्य ,इन्द्र , अग्नि , वायु ,चन्द्रमा और अनेक देवताओ के सभी अधिकार छीन लिए है और उनको बंधक बनाकर स्वयं स्वर्गलोक का राजा बन गया है। यह सुनकर भगवान विष्णु और शिवजी को अत्यंत क्रोध आया। इसी समय ब्रह्मा, विष्णु, और शिवजी के क्रोध के कारण एक महा तेज प्रकट हुआ। और अन्य देवताओ के शरीर से भी तेजमय शक्ति बनकर एकाकार हो गई। यह तेजमय शक्ति एक पर्वत के समान थी। उसकी ज्वालाएं दसो दिशा में व्याप्त होने लगी। जिसके प्रभाव से तीनो लोक भर गए। समस्त देवताओ के तेज से प्रकट हुई देवी को देखकर देवताओ की ख़ुशी का ठिकाना न रहा। भगवान शिव ने उन्हें एक त्रिशूल दिया और भगवान विष्णु ने उन्हें एक छत्र प्रदान किया। इसी प्रकार सभी देवताओ ने देवी को अनेक प्रकार के अश्त्र शस्त्र दिए। इन्द्र ने अपना वज्र और एक घंटा देवी को दिया। इसी प्रकार सभी देवताओ ने मिलकर देवी के हाथ में अनेक प्रकार के अश्त्र शश्त्र सजा दिए और वाहन के रूप में बाघ को दिया। और इसके बाद माँ चंद्र घंटा ने महिषासुर और उसकी सेना के साथ युद्ध किया और महिषासुर एवं अनेक अन्य राक्षशो का वध कर दिया।
माँ कुष्मांडा - कुष्मांडा माता ने अपनी मुस्कान से ब्रह्माण्ड की रचना की थी, इसीलिए इन्हे सृष्टि की आध्यशक्ति के रूप में जाना जाता है। कुष्मांडा माता का रूप बहोत ही शांत , सौम्य और मोहक माना जाता है। इनकी आठ भुजाए हे इसीलिए इनको अष्ट भुजा भी कहते है। इनके सात हाथो में कमण्डल ,धनुष , बाण , फल , पुष्प , अमृत , कलश , चक्र ,गदा है। आठ में हाथ में सभी सिद्धि को देने वाली जप की माला है। माता का वाहन शेर है। माता के पूजन से भक्तो से सभी कष्टों का नाश होता है। माँ कुष्मांडा का नाम का मतलब हे, एक ऊर्जा का छोटा सा गोला। एक ऐसा पवित्र गोला जिसने इस समस्त ब्रह्माण्ड की रचना की।
पौराणिक कथा के अनुसार जब सृष्टि नहीं थी, चारों तरफ अंधकार ही अंधकार था, तब इसी देवी ने अपने ईषत् हास्य से ब्रह्मांड की रचना की थी। इसीलिए इसे सृष्टि की आदिस्वरूपा या आदिशक्ति कहा गया है। इस देवी का वास सूर्यमंडल के भीतर लोक में है। सूर्यलोक में रहने की शक्ति क्षमता केवल इन्हीं में है। इसीलिए इनके शरीर की कांति और प्रभा सूर्य की भांति ही दैदीप्यमान है। इनके ही तेज से दसों दिशाएं आलोकित हैं। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में इन्हीं का तेज व्याप्त है। अचंचल और पवित्र मन से नवरात्रि के भक्तों के रोगों और शोकों का नाश होता है तथा उसे आयु, यश, बल और आरोग्य प्राप्त होता है। ये देवी अत्यल्प सेवा और भक्ति से ही प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती हैं। सच्चे मन से पूजा करने वाले को सुगमता से परम पद प्राप्त होता है। विधि-विधान से पूजा करने पर भक्त को कम समय में ही कृपा का सूक्ष्म भाव अनुभव होने लगता है।

मां स्कंदमाता – नाम दो शब्दों से मिलकर बनता है। स्कंद और माता। स्कंद भगवान कार्तिकेय का दूसरा नाम है। कार्तिकेय भगवान शिव और माता पार्वती के पुत्र है। इसीलिए स्कंद माता का अर्थ हे, कार्तिकेय की माता। इनके विग्रह में भगवान स्कंद कुमार कार्तिकेय बालरूप में इनकी गोद में विराजित हैं। इस देवी की चार भुजाएं हैं। ये दाईं तरफ की ऊपर वाली भुजा से स्कंद को गोद में पकड़े हुए हैं। नीचे वाली भुजा में कमल का पुष्प है। बाईं तरफ ऊपर वाली भुजा में वरदमुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में कमल पुष्प है। इनका वर्ण एकदम शुभ्र है। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसीलिए इन्हें पद्मासना भी कहा जाता है। सिंह इनका वाहन है।
सती जब अग्नि में जलकर भष्म हो गई, उसके बाद शंकर भगवान सांसारिक मामलो से दूर हो गए और कठिन तपस्या में लग गए। उसी समय देवता गण तारकासुर के अत्याचार भोग रहे थे। तारकासुर को वरदान था, की केवल भगवान शिव की संतान उसका वध कर सकती हे। बिना सती के संतान नहीं हो सकती थी। इसीलिए सारे देवता भगवान विष्णु के पास गए, तब विष्णुजी ने उनको कहा की यह सबकी वजह आप लोग ही हो ,अगर आप सब राजा दक्ष के वहा बिना शिवजी के नहीं गए होते, तो सती को अपना शरीर नहीं छोड़ना पड़ता। उसके बाद भगवान विष्णु देवताओ को माता पार्वती के बारे में बताते हे, जो सती माता की अवतार है। तब नारदमुनि माता पार्वती के पास जाकर उन्हें तपस्या करके भगवान शिव को प्राप्त करने को कहते है। माँ पार्वती की हजारो वर्षो की तपस्या के बाद भगवान शिव उनसे विवाह करते है। उन दोनों की ऊर्जा से एक ज्वलंत बीज पैदा होता है। उस बीज से छः मुख वाला कार्तिकेय जन्म लेता है। और फिर कार्तिकेय तारकासुर का एक भयंकर युद्ध में वध कर देता है। तभी से स्कंद माता एक सर्व श्रेष्ठ पुत्र कार्तिकेय की माता के नाम से जानी जाती है।

मां कात्यायनी - की पूजा की जाती है। इनकी उपासना और आराधना से भक्तों को बड़ी आसानी से अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति होती है। उसके रोग, शोक, संताप और भय नष्ट हो जाते हैं। जन्मों के समस्त पाप भी नष्ट हो जाते हैं। मां दुर्गा की छठवीं शक्ति कात्यायनी की उपासना करने से परम पद की प्राप्ति होती है।
पुराणों के अनुसार महर्षि कात्यायन ने माँ आध्यशक्ति की घोर तपस्या की थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर माँ ने उन्हें उनके यहाँ पुत्री के’रूप में जन्म लेने का वरदान दिया था। माँ का जन्म महर्षि कात्यायन के आश्रम में हुआ था। कहते हे, जिस समय महिषासुर का अत्याचार बहुत बढ़ गया था, तब त्रिदेवो के तेज से माँ की उतपत्ति हुई थी। माँ ने दशमी तिथि के दिन महिषासुर नाम के राक्षश का वध किया था। इसके बाद शुंभ निशुंभ ने भी स्वर्ग लोक पर आक्रमण करके इन्द्र का सिंहासन छीन लिया था। उनका अत्याचार बढ़ने से माँ ने उनका भी वध कर दिया था। इस तरह अगर माँ कात्यायनी की पूजा की जाये, व्रत को पढ़ा या सुना जाये, माँ उनके शत्रुओ से उनकी रक्षा सदेव करती है।

कालरात्रि – काल अर्थ मृत्यु होता हे,और रात्रि का अर्थ अंधकार होता है। इसका प्रकार कालरात्रि का अर्थ हुआ काल का नाश करने वाली। भय से मुक्ति प्रदान करने वाली देवी कालरात्रि की पूजा हम नवरात्रि के सातवें दिन करते हैं। इनकी पूजा से प्रतिकूल ग्रहों द्वारा उत्पन्न दुष्प्रभाव और बाधाएं भी नष्ट हो जाती हैं। माता का यह रूप उग्र एवं भयावह है लेकिन अपने भयावह रूप के बाद भी यह भक्तों को शुभ फल प्रदान करती हैं। ये देवी काल पर भी विजय प्राप्त करने वाली हैं। मां कालरात्रि का वर्ण घोर अंधकार की भांति काला है, बाल बिखरे हुए हैं तथा अत्यंत तेजस्वी तीन नेत्र हैं। इनके गले में बिजली की चमक जैसी माला भी होती है। मां के चार हाथों में से दो हाथ अभय मुद्रा और वर मुद्रा में होते हैं तथा शेष दोनों हाथों में चंद्रहास खडग अथवा हंसिया एवं नीचे की ओर वज्र होती है। माता के तन का ऊपरी भाग लाल रक्तिम वस्त्र से एवं नीचे का भाग बाघ के चमड़े से ढका रहता है। इनका वाहन गर्दभ होता है।
प्राचीन समय में शुंभ निशुंभ दैत्योने अपने बल से इन्द्र का राज्य छीन लिया था और उनके अत्याचार देवताओ पे बहोत बढ़ गए थे। तब वह मदद मांगने हिमालय पर्वत पर जाकर माँ भगवती की स्तुति करते है। माँ पार्वती को जब इनके बारे में पता चलता हे, तब उनके शरीर से अंबिका निकली तो पार्वती ने अंबिका को दैत्यों के संहार के लिए भेजा। युद्ध में शुंभ और निशुंभ ने दो राक्षशो चंड और कुंड को भेजा। अंबिका देवी ने चंड और कुंड से लड़ने के लिए काली देवी का निर्माण किया। और काली माता ने चंड और कुंड का वध किया, इसीलिए वह चामुंडा के नाम से जानी जाने लगी। इसके बाद शुंभ और निशुंभ ने रक्तबीज नामक अति पराक्रमी राक्षश को भेजा। उसको ब्रह्मा जी से वरदान था, की जब उसकी एक भी रक्त की बून्द जमीन पर गिरेगी, वह दूसरा रक्तबीज बन जायेगा। जिसे उसके जैसा पराक्रमी पैदा हो जायेगा। युद्ध में जब रक्तबीज का रक्त गिरते ही वहा पे बहुत सारे दानव पैदा हो गए, तब देवताओ का भय बढ़ गया। उनका भय देखकर अंबिका माँ ने माँ काली से कहा – हे! चामुंडे! अपने रूप को बड़ा करो और रक्तबीज से उत्त्पन हुए सारे महाअसुरो का भक्षण करो। उसके बाद काली माँ ने अपना रूप बड़ा करके अपने त्रिशूल से रक्तबीज पर प्रहार किया, तब रक्तबीज के शरीर से जो भी रक्त निकला उसको माँ ने पी लिया और उसके बाद माँ ने रक्तबीज को वज्र , बाण , खड़क से मार डाला। माँ कालरात्रि दुष्टो का नाश करने वाली है, और क्रूरता को ख़तम करने वाली है।

माता महागौरी - माँ महागौरी की पूजा अर्चना से भक्तो के सारे कष्ट दूर होते है।महागौरी के तेज से ही सम्पूर्ण विश्व प्रकाशमान होता है। इनकी शक्ति अमोग फल देने वाली है। इनके पूजा से सौभाग्य में वृद्धि होती है। माता ने महा तपस्या करके गौर वर्ण को प्राप्त किया है। इसीलिए इनको महागौरी कहते है। माँ के चार हाथ है।
इनके दायने तरफ के ऊपर वाले हाथ में त्रिशुल धारण किया है, और निचे वाला हाथ वरदायिनी मुद्रा में है। बायें तरफ के ऊपर वाले हाथ में अभय मुद्रा धारण किये हुए है, और नीचे वाले हाथ में डमरू को धारण किया है। माँ का वाहन बैल है।
इनकी पूरी मुद्रा बहुत शांत है। पति रूप में शिव को प्राप्त करने के लिए महागौरी ने कठोर तपस्या की थी। इसी वजह से इनका शरीर काला पड़ गया लेकिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने इनके शरीर को गंगा के पवित्र जल से धोकर कांतिमय बना दिया। उनका रूप गौर वर्ण का हो गया। इसीलिए ये महागौरी कहलाईं। ये अमोघ फलदायिनी हैं और इनकी पूजा से भक्तों के तमाम कल्मष धुल जाते हैं। पूर्वसंचित पाप भी नष्ट हो जाते हैं। महागौरी का पूजन-अर्चन, उपासना-आराधना कल्याणकारी है। इनकी कृपा से अलौकिक सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं। नवरात्रि के आठवें दिन मां महागौरी की पूजा करने का प्रचलन है।

सिद्धिदात्री – नवरात्री के नौवे दिन माँ सिद्धिदात्री की पूजा की जाती है। सिद्धि का अर्थ अलौकिक शक्ति और दात्री का अर्थ दाता या प्रदान करने वाली होता है। सिद्धिदात्री का यह स्वरुप सभी दिव्य आकांक्षाओं को पूर्ण करने वाला होता है। इस रूप में माँ कमल पर बिराजमान है। माता के चार हाथ है। उनके चारो हाथो में कमल, गदा, चक्र और शंख धारण करती हे। माता का वाहन सिंह है। माता अज्ञानता दूर करनेवाली है। पुराणों के अनुसार माँ सिद्धिदात्री की पूजा करने से अणिमा, महिमा, गरीमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व आठ सिद्धियाँ प्राप्त होती है। और असंतोष, आलस्य, ईर्ष्या, द्रेष आदि से छुटकारा मिलता है।
प्रमाण :-
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(आपकी कुंडली के ग्रहों के आधार पर राशिफल और आपके जीवन में घटित हो रही घटनाओं में भिन्नता हो सकती है। पूर्ण जानकारी के लिए कृपया किसी पंड़ित या ज्योतिषी से संपर्क करें।)
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