धर्म डेस्क:-भगवान विष्णु ने इंद्र को शाप मुक्ति के लिए असुरों के साथ 'समुद्र मंथन' के लिए कहा और दैत्यों को अमृत का लालच दिया। इस तरह हुआ समुद्र मंथन। यह समुद्र था क्षीर सागर जिसे आज हिन्द महासागर कहते हैं। जब देवताओं तथा असुरों ने समुद्र मंथन आरंभ किया, तब भगवान विष्णु ने कच्छप बनकर मंथन में भाग लिया। अधिकांश लोगों को यही पता है कि समुद्र मंथन पृथ्वी के निर्माण के लिए हुआ था। मगर, विष्णु पुराण में समुद्र मंथन की कुछ और ही कथा छुपी हुई है। समुद्र मंथन का कारण था देवी लक्ष्मी की खोज। जी हां, देवी लक्ष्मी के क्षीर सागर में विलुप होने के बाद जब उनकी तलाश की गई तब हुआ था समुद्र मंथन।
बृह्मा जी ने भगवान विष्णु से पृथ्वी के निर्माण के विषय में बात की तब एक बार फिर भगवान विषणु और देवी लक्ष्मी को एक दूसरे से बिछड़ना पड़ा। उस वक्त देवी लक्ष्मी नाराज हो कर क्षीर सागर की गहराइयों में समाहित हो गई। वहीं भगवान विषणु पृथ्वी लोक को बसाने के बारे में विचार करने लगे। तब पृथ्वी के लगभग पूरे हिस्से में पानी ही पानी था।इस श्राप के कारण राधा रानी को हाथ भी नहीं लगा पाते थे।
समुद्र मंथन या समुद्र का मंथन एक अनूठा अवसर है जब देव और उनके कट्टर विरोधी, असुर, एक महत्वपूर्ण कारण के लिए एकजुट होते हैं। समुद्र मंथन ऋषि दुर्वासा के एक श्राप का परिणाम था। एक बार, उन्होंने देवों के राजा इंद्र को एक माला भेंट की। दुर्वासा मुनि के शाप से श्रीहीन और शक्तिहीन हुए देवताओं ने भगवान विष्णु के परामर्श पर अमृत की प्राप्ति के लिये दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र मंथन का आयोजन किया था।
एक बार दुर्वासा ऋषि एवं उनके शिष्य शिवजी के दर्शनों के लिए कैलाश पर्वत की और जा रहे थे। मार्ग में उन्हें देवराज इन्द्र मिले। इन्द्र ने दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्यों का बहुत ही आदर सत्कार किया, जिससे दुर्वासा ऋषि अत्यत प्रसन्न हुए और उन्होंने इन्द्र को विष्णु भगवान का ‘पारिजात पुष्प’ दिया। धन सम्पति वैभव एवं इन्द्रासन के गर्व में चूर इन्द्र ने उस ‘पारिजात पुष्प’ को अपने प्रिय हाथी ऐरावत के मस्तक पर रख दिया। उस पुष्प का स्पर्श होते ही ऐरावत हाथी सहसा ही विष्णु भगवान के समान तेजस्वी हो गया। उसने इन्द्र के अवहेलना कर दी और उस दिव्य पुष्प को कुचलते हुए वन की ओर चला गया।इन्द्र को दिए आशीर्वाद के रूप में भगवान विष्णु के पुष्प का तिरस्कार होते देखकर दुर्वाषा ऋषि अत्यंत क्रोधित हो गए। उन्होंने देवराज इन्द्र को ‘श्री’ (लक्ष्मी) से हीन हो जाने का शाप दे दिया।

दुर्वासा ऋषि के शाप के फलस्वरूप लक्ष्मी उसी क्षण स्वर्गलोक को छोड़कर अदृश्य हो गईं। लक्ष्मी के चले जाने से इन्द्र आदि देवता निर्बल और श्रीहीन हो गए। उनका सारा धन वैभव लुप्त हो गया। जब यह खबर दैत्यों (असुरों) को मिली तो उन्होंने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और देवगण को पराजित कर स्वर्ग पर अपना कब्ज़ा जमा लिया।उसके बाद निराश होकर इन्द्र देवगुरु बृहस्पति और अन्य देवताओं के साथ ब्रह्माजी की शरण में पहुंचे । तब ब्रह्माजी बोले —‘‘देवेन्द्र इंद्र, भगवान विष्णु के भोगरूपी पुष्प का अपमान करने के कारण रुष्ट होकर भगवती लक्ष्मी तुम्हारे पास से चली गयी हैं। यदि तुम उन्हें पुनः प्रसन्न करने के लिए भगवान नारायण की कृपा-दृष्टि प्राप्त करो तो उनके आशीर्वाद से तुम्हें खोया वैभव (स्वर्ग) पुनः मिल जाएगा। इंद्र और अन्य देवताओं के आग्रह पर ब्रह्माजी भी उनके साथ भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे। वहाँ परब्रह्म भगवान विष्णु भगवती लक्ष्मी के साथ विराजमान थे।
सभी देवगण भगवान विष्णु की स्तुति करते हुए बोले ” हे प्रभु ! आपके श्रीचरणों में हमारा कोटि कोटि प्रणाम। भगवन् ! दुर्वाषा ऋषि के शाप के कारण माता लक्ष्मी हमसे रूठ गई हैं और दैत्यों ने हमें पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया है। अब हम आपकी शरण में हैं, हमारी रक्षा कीजिए। हम सब जिस उद्देश्य से आपकी शरण में आए हैं, कृपा करके आप उसे पूरा कीजिए।भगवान विष्णु त्रिकालदर्शी हैं, वे पल भर में ही देवताओं के मन की बात जान गए। तब वे देवगणों से बोले—‘‘मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें, दैत्यों पर इस समय काल की विशेष कृपा है इसलिए जब तक तुम्हारे उत्कर्ष और दैत्यों के पतन का समय नहीं आता, तब तक तुम उनसे संधि कर लो। क्योंकि केवल यही तुम्हारे कल्याण का उपाय है।
क्षीरसागर के गर्भ में अनेक दिव्य पदार्थों के साथ-साथ अमृत भी छिपा है। उसे पीने वाले के सामने मृत्यु भी पराजित हो जाती है। इसके लिए तुम्हें समुद्र मंथन करना होगा। यह कार्य अत्यंत दुष्कर है, अतः इस कार्य में दैत्यों से सहायता लो। कूटनीति भी यही कहती है कि आवश्यकता पड़ने पर शत्रुओं को भी मित्र बना लेना चाहिए।
तत्पश्चात अमृत पीकर अमर हो जाओ। तब दुष्ट दैत्य भी तुम्हारा अहित नहीं कर पाएंगे । वे जो भी शर्त रखें, उसे स्वाकीर कर लो। यह बात याद रखो कि शांति से सभी कार्य बन जाते हैं, क्रोध करने से कुछ नहीं होता। भगवान विष्णु के परामर्श के अनुसार इन्द्रादि देवगण दैत्यराज बलि के पास संधि का प्रस्ताव लेकर गए और उन्हें अमृत के बारे में बताकर समुद्र मंथन के लिए तैयार कर लिययह वस्तुएं क्षीर सागर में छुपे हुए थे। तब भगवान विष्णु ने तय किया कि वह समुद्र का मंथन कराएंगे। मगर, इस मंथन के लिए न तो देवता गण तैयार थे और नहीं वह इसे अकेले कर पाने में समर्थ थे। वहीं दूसरी तरफ देवी लक्ष्मी के रुष्ट होने से पूरे बृह्मांड में सभी देवता और असुर श्रीहीन हो गए थे। सभी चाहते थे कि देवी लक्ष्मी वापिस आ जाएं।
भगवान विष्णु ने तब देवताओं को श्री का लोभ और असुरों को अमृत का लोभ दे कर समुद्र मंथन के लिए तैयार किया था। इसके बावजूद समुद्र को मथना आसान नहीं था। तब भगवान विष्णु ने अपनी माया से मंदार पर्वत को समुद्र के बीचो बीच ला खड़ा किया। इसके बाद मंदार पर्वत से समुद्र को मथने के लिए एक मजबूत रस्सी की जरूरत थी। तब भगवान विष्णु ने भगवान शिव से उनके गले में वास करने वाले नाग वासुकि नाग को रस्सी बनाया गया था।
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